बहुबचपन के साथ सामाजिक विज्ञान का शिक्षण

अज़ीम प्रेमजी फाउंडेशन, भोपाल, मध्यप्रदेश

आजदफ़्तर के काम से एक सरकारी स्कूल गयी थी. स्कूल हमेशा ही काम से जाना होता है किन्तु इस बार जो घटा वह मन को कचोट रहा था. ये बताने की जरूरत नहीं है किसरकारी स्कूल में बच्चे कहाँ से औरकिनपरिस्थितियों से आते हैं. हम सब जानते है कि ये बच्चे प्रथम पीढ़ी के स्कूल जाने वाले बच्चे है. 

देवेन्द्रका किस्सा उसकी जुबानी-

स्कूलमें घुसते ही दो बच्चे(उम्र 11-12 साल ) भाग करमेरे पास आयेऔर उनमें से एक ने ख़ुशी से चहकते हुएकहा ‘मेम आप ने मुझे पहचाना?’.

मैंने हंसकर कहा- ‘हाँ देखा हुआ तो लग रहा, परयाद नहीं आ रहा है’. बच्चेने कहा –‘मेममैं देवेन्द्र ना, आपके यहाँ अख़बार की रद्दी लेने आया था’

देवेन्द्र को याद करूं तब तक उसने दूसरा प्रश्न दागा–‘मेम, और आपकेयहाँरद्दी औरइकठ्ठी हो गयी है क्या ?’

मैंने कहा-‘हाँ. तो.’

 “मेम, मैंकलघर आऊंगा, आप किसी को भी मत देना”.

 ‘हाँ. तुम आजाना.’

‘मेम, अभी 8रूपयेका भाव चल रहा है.’

‘कोई नहीं, तुम ऐसे ही ले जाना.’

देवेन्द्रबहुतख़ुशी से थोड़ी दूर तकअपने दोस्त के साथ गया फिर वापस भागकर मेरे पास आया. कहा-“आपके यहाँ अख़बार की रद्दी कितने किलो होगी”.

मैंने अंदाज से ही कहा –‘करीबन 10 किलो.’

देवेन्द्र ने आगे पूछा – ‘मेम आपके यहाँ कबाड़ भी है क्या ?’

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